मुनि पुण्यविजयजी
आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी (1895 - 1971) का जन्म 27 अक्टूबर, 1895 को उत्तरी गुजरात के कपडवंज में हुआ था। उनका जन्म का नाम मणिलाल था, और उन्होंने 14 साल की उम्र में अपने पिता डाह्याभाई दोशी को खो दिया था। इसके बाद, उनकी मां, माणेकबेनने सांसारिक जीवन को त्यागने की कामना की । युवा मणिलाल ने भी सांसारिक जीवन को त्यागने की इच्छा व्यक्त की और अपनी माँ के साथ जुड़ गए। वह मुनि चतुरविजयजी के शिष्य बन गए, जिन्होंने उन्हें वडोदरा के पास छानी में मुनि परम्परा में दीक्षित किया। अब उन्हें मुनि पुण्यविजयजी के नाम से जाना जाने लगा।
मुनि पुण्यविजयजी ने अपने गुरु मुनि चतुरविजयजी और उनके दादा गुरु, मुनि कांतिविजयजी, जिन्होंने प्राचीन पांडुलिपियों के संरक्षण और आलोचनात्मक अध्ययन के लिए खुद को समर्पित किया था, उन्होनें विद्वानों की पुरानी परंपरा को जारी रखा। उन्होंने लींबडी, पाटण, खंभात, वडोदरा, छानी, भावनगर, पालिताणा, अहमदाबाद और जैसलमेर के भंडारों की पांडुलिपियों की जांच, व्यवस्थित और सूचीबद्ध किया। इस अवधि के दौरान कई व्यक्तियोंने उन्हें पांडुलिपियों का अपना छोटा संग्रह भेंट किया। यह संग्रह दस हजार पांडुलिपियों का था जो अब एल.डी. इंडोलॉजी संस्थान में स्थित है।
जब वे केवल 22 वर्ष के थे तब ई. स. 1917 में, उनकी पहली पुस्तक, "कौमुदीमित्रानंद नाटकम" प्रकाशित हुई । उन्होंने कई पांडुलिपियों का संपादन किया और जैसलमेर, खंभात और एल.डी. के भंडारों में रही पांडुलिपियों को सूचीबद्ध किया। मुनिजी के पास पश्चिम भारतीय जैन चित्रशैली के चित्रों के लिए एक विशेष अंतर्दृष्टि दृष्टि थी, जो 1951 में प्रकाशित "जैसलमेर नी चित्र समृद्धि" में परिलक्षित होती है।
उनकी विद्वता के लिए, उन्हें 1954 में वडोदरा में श्रीसंघ द्वारा आगमप्रभाकर की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्हें 1971 में आचार्य श्री विजयसमुद्रसुरिजी द्वारा श्रुतिशीलवारीधि की उपाधि से अलंकृत किया गया एक और सम्मान था। उन्हें 1961 में श्रीनगर में आयोजित 21वें अखिल भारतीय ओरिएंटल सम्मेलन के प्राकृत और पाली सत्र की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया था।
1950 में, अहमदाबाद के प्रतिष्ठित उद्योगपति शेठ कस्तूरभाई लालभाई जैसलमेर में मुनिजी से मिले, जहाँ उन्होंने उन्हें भंडारों के संरक्षण के लिए काम करते हुए देखा। वह मुनिजी के शानदार व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। एक बार, मुनिजी ने अपनी इच्छा व्यक्त की, उनकी इच्छा एवं शेठ श्री कस्तूरभाई के प्रयासों ने एक इंडोलॉजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट का मूर्त स्वरूप धारण किया । भारतीय संस्कृति के दो महान संरक्षकों के घनिष्ठ संबंध के कारण, ई. स. 1956 में लालभाई दलपतभाई संस्थान की स्थापना हुई ।
संग्रह के बारे में:
मुनिजी ने अपनी पांडुलिपियों और अन्य कलाकृतियों का व्यक्तिगत संग्रह संस्थान को दान कर दिया। इसमें कई महत्त्वपूर्ण सचित्र और बिना चित्रवाली पांडुलिपियां, कांस्य, वस्त्रचित्र आदि शामिल थे। भारतीय कला के इस खजाने को पहले संस्थान के एक हॉल में प्रदर्शित किया गया था। बाद में, संग्रह के सौंदर्यपूर्ण और प्रेरक प्रदर्शन के लिए एक अलग संग्रहालय भवन की आवश्यकता महसूस की गई, ताकि संग्रह का शैक्षिक मूल्य जनता तक पहुंच सके। संग्रहालय के अलग भवन हेतु 1984 में काम करना शुरू किया। एल.डी. इंडोलॉजी के साथ-साथ एल.डी. संग्रहालय मुनि पुण्यविजयजी और शेठ कस्तूरभाई लालभाई के आदर्श उद्देश्यो को करने में इच्छुक हैं।
वर्तमान में मुनिजी का संग्रह एल.डी. संग्रहालय भवन की पहली मंजिल पर प्रदर्शित है। गुजराती जैनशैली की पेन्टिंग इस गैलरी का मुख्य आकर्षण हैं। संग्रह को मुनिजी द्वारा 1940 के दशक के दौरान इकट्ठा किया गया था जिसमें ताड़पत्र की पांडुलिपियां शामिल हैं, शांतिनाथ चरित्र की सबसे पुरानी चित्रित कागज पांडुलिपि वि. सं. 1453 (अर्थात 1396 ई.) जिसे यूनेस्को द्वारा वैश्विक खजाने के रूप में भी मान्यता प्राप्त है, और भी कई दुर्लभ ब्रह्माण्ड संबंधी चित्र, जैन सिद्धचक्र यंत्र और अन्य ऐसी विशिष्ट कलाकृतियाँ इस संग्रह की शोभा बढ़ाती है ।
